नवरात्र यह देवी के लिए एक विशेष समय है जो ईश्वर की स्त्री प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती है: स्वामी राम भजन
हरिद्वार,2 अक्टूबर,स्वामी राम भजन वन जी ने अपने श्री मुख से भक्तजनों के बीच उद्गार व्यक्त करते हुए देवी की शक्तियों के विषय में,व नवरात्रि मनाने के कारण के विषय में बताते हुए कहाकि देवी दुर्गा ने आश्विन के महीने में महिषासुर पर आक्रमण कर उससे नौ दिनों तक युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध किया। इसलिए इन नौ दिनों को शक्ति की आराधना के लिए समर्पित कर दिया गया, चूंकि आश्विन मास में शरद ऋतु का प्रारंभ हो जाता है, इसलिए इसे शारदीय नवरात्रि कहा जाता है।यह देवी के लिए एक विशेष समय है, जो ईश्वर की स्त्री प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती है। दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती को स्त्री के तीन आयामों के रूप में देखा जाता है। जो लोग ताकत या शक्ति की आकांक्षा रखते हैं, वे धरती माता, दुर्गा या काली जैसे नारी के रूपों की पूजा करते हैं। अखाड़ा परिषद श्री निरंजनी के अध्यक्ष श्री रवींद्र पुरी जी महाराज ने इसके वैज्ञानिक कारणों को बताते हुए कहा कोनवरात्रि के दौरान किए जाने वाले कार्यों के पीछे वैज्ञानिक कारण उपवास : उपवास करने से शरीर को आराम मिलता है और पाचन तंत्र को ठीक होने का मौका मिलता है। साफ-सफाई : नवरात्रि के दौरान घर, मंदिर और आसपास की जगहों को साफ-सुथरा रखना चाहिए। इससे वातावरण शुद्ध रहता है और बीमारियों से बचाव होता है। कल 3 अक्टूबर से शारदीय नवरात्र शुरू हो रहे हैं जिसके घट स्थापना के विषय में और उसकी विधि के विषय में बताते हुए महाराज श्री ने कहा कि(घटस्थापना स्थापना महूर्त 3 अक्टूबर ) शरदीय नवरात्रि घटस्थापना मुहूर्त- प्रात: 06:15 से 07:22 के बीच घटस्थापना अभिजीत मुहूर्त- दोपहर 11:46 से 12:33 के बीच। शुभ चौघड़िया: प्रात: 06:15 से 07:44 के बीच। लाभ चौघड़िया: दोपहर 12:10 से 01:38 के बीच हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार कलश स्थापना के बाद ही किसी भी देवी देवता की पूजा का विधान है। इसका कारण यह है कि कलश स्थापना विशेष मंत्रों एवं विधियों से किया जाता है। इससे कलश में सभी ग्रह, नक्षत्रों एवं तीर्थों का वास हो जाता है। देवताओं एवं ग्रह नक्षत्रों के शुभ प्रभाव से पूजन संपन्न होता है और पूजन करने वाले को पूजन एवं शुभ कार्य का पूर्ण लाभ मिलता है। कलश स्थापना करते समय इन बातों का विशेष ध्यान रखें। कलश के ऊपर रोली से ॐ और स्वास्तिक लिखें। पूजा आरंभ के समय 'ऊं पुण्डरीकाक्षाय नमः' कहते हुए अपने ऊपर जल छिड़कें। अपने पूजा स्थल से दक्षिण और पूर्व के कोने में घी का दीपक जलाते हुए, 'ॐ दीपो ज्योतिः परब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः। दीपो हरतु में पापं पूजा दीप नमोस्तु ते। मंत्र पढ़ते हुए दीप प्रज्ज्वलित करें। मां दुर्गा की मूर्ति के बाईं तरफ श्री गणेश की मूर्ति रखें। पूजा स्थल के उत्तर-पूर्व भाग में पृथ्वी पर सात प्रकार के अनाज, नदी की रेत और जौ 'ॐ भूम्यै नमः' कहते हुए डालें। इसके उपरांत कलश में जल-गंगाजल, लौंग, इलायची, पान, सुपारी, रोली, मौली, चंदन, अक्षत, हल्दी, सिक्का, पुष्पादि डालें। अब कलश में थोड़ा और जल-गंगाजल डालते हुए 'ॐ वरुणाय नमः' मंत्र पढ़ें और कलश को पूर्ण रूप से भर दें। इसके बाद आम के पांच (पल्लव) डालें। यदि आम का पल्लव न हो, तो पीपल, बरगद, गूलर अथवा पाकर का पल्लव भी कलश के ऊपर रखने का विधान है। जौ या कच्चा चावल कटोरे में भरकर कलश के ऊपर रखें। फिर लाल कपड़े से लिपटा हुआ कच्चा नारियल कलश पर रख कलश को माथे के समीप लाएं और वरुण देवता को प्रणाम करते हुए बालू या मिटटी पर कलश स्थापित करें। मिटटी मेँ जौ का रोपण करें। कलश स्थापना के बाद मां भगवती की अखंड ज्योति जलाएं। यदि हो सके तो यह ज्योति पूरे नौ दिनों तक जलती रहनी चाहिए। फिर क्रमशः श्री गणेशजी की पूजा, फिर वरुण देव, विष्णुजी की पूजा करें। शिव, सूर्य, चंद्रादि नवग्रह की पूजा भी करें। इसके बाद देवी की प्रतिमा सामने चौकी पर रखकर पूजा करें। इसके बाद पुष्प लेकर मन में ही संकल्प लें कि मां मैं आज नवरात्र की प्रतिपदा से आपकी आराधना अमुक कार्य के लिए कर रहा/रही हूं, मेरी पूजा स्वीकार करके मेरी कामना पूर्ण करो। पूजा के समय यदि आप को कोई भी मंत्र नहीं आता हो,तो केवल दुर्गा सप्तशती में दिए गए नवार्ण मंत्र 'ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे' से सभी पूजन सामग्री चढ़ाएं।मां शक्ति का यह मंत्र अमोघ है। आपके पास जो भी यथा संभव सामग्री हो, उसी से आराधना करें। संभव हो शृंगार का सामान और नारियल-चुन्नी जरूर चढ़ाएं। सर्वप्रथम मां का ध्यान, आवाहन, आसन, अर्घ्य, स्नान, उपवस्त्र, वस्त्र, शृंगार का सामान, सिंदूर, हल्दी, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, मिष्ठान, कोई भी ऋतुफल, नारियल आदि जो भी सुलभ हो उसे अर्पित करें। पूजन के पश्चात् श्रद्धापूर्वक सपरिवार आरती करें और अंत में क्षमा प्रार्थना भी करें। ध्यान रखें: कलश सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का होना चाहिए। लोहे या स्टील का कलश पूजा में प्रयोग नहीं करना चाहिए।